मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

 

जिस देश में गंगा बहती है " और  "तीसरी कसम"  से जुड़ी मेरी बाल स्मृतियां
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  जबलपुर मेरा जन्मस्थान है ये सोचकर कभी कभी गर्व होता है मुझे । मशहूर अभिनेता प्रेमनाथ यूं तो रीवा के थे, लेकिन उनकी एक कोठी और एक सिनेमा हाल जबलपुर में भी था। उसी कोठी के एक हिस्से में हम लोग रहते थे और वहीं मेरा जन्म हुआ । मेरे पिता प्रेमनाथ जी के अच्छे मित्र थे । जबलपुर में उनके सिनेमा हाल " एम्पायर टाकीज" का काम देखते थे । जब राज कपूर की प्रेमनाथ की बहन कृष्णा से शादी हुई, उनके पैतृक घर रीवा में , तो मेरे पिता ने देखी थी उनकी शादी। प्रेमनाथ जी के कारण ही मुझे बचपन में राज कपूर की दो फिल्मों कि शूटिंग देखने को मिली उनमें एक थी " जिस देश में गंगा बहती है (1960)" जिसके एक गीत की शूटिंग इसी भेड़ाघाट में हुई थी । गीत के बोल थे " ओ बसंती पवन पागल " जो पद्मिनी और राज कपूर पर फिल्माया गया था । इसकी शूटिंग का पूरा इंतजाम प्रेमनाथ जी ने किया था ये मेरे पिताजी ने बताया था मुझे। मैं तो तब 5 साल का अबोध बालक था। उन्हें क्या मालूम था कि एक दिन मैं इस पर  लिखूंगा !!!

जय प्रकाश नारायण द्वारा आरंभ किए गए डाकुओं के आत्म समर्पण अभियान के वर्षों पूर्व " जिस देश में गंगा बहती है " फिल्म बनाई और प्रदर्शित की गई थी ।  यह एक आदर्शवादी फिल्म थी जिसमे डाकू समस्या का गांधीवादी समाधान का उपक्रम रचा गया था। प्रेम और करुणा की अन्याय पर विजय दिखाई गई थी इस फिल्म में। फिल्म को सफल बनाने में शंकर जयकिशन के मधुरिम संगीत , शैलेन्द्र की भावपूर्ण गीतों की शब्द रचना और राज कपूर के जीवन पर्यन्त स्थाई कला निर्देशक रहे  राधू कर्मकार के कुशल निर्देशन का बहुत बड़ा योगदान था। इसके साथ राज कपूर, प्राण, पद्मिनी , तिवारी, ललिता पवार और नयमपल्ली आदि ने अपनी अपनी अविस्मरणीय भूमिकाओं से फिल्म को यादगार बना दिया था। फिल्म के एक दृश्य में राका डाकू (प्राण) और उसके साथी ( तिवारी वगैरह) जब राजू (राज कपूर) की " गंगा मैया की कसम" का मज़ाक उड़ाते हैं  ! तो राजू अपनी ढपली और  समान उठाकर वहां से जाने लगता है । दृश्य में ऊंची ऊंची सफेद संगमरमर की पहाड़ियों के बीच नदी ( नर्मदा) बह रही है । भेडा घाट की बेहद खूबसूरत संगमरमर चट्टानों के बीच निर्देशक राधु कर्मकार द्वारा फिल्माया गया यह दृश्य सौंदर्य, भय और आतंक जैसी तमाम भावनाओं  की मिली जुली श्रृष्टि करता  है। राजू के पीछे उसकी प्रेयसी कम्मो भागती हुई पुकार रही है "  रुक जाओ राजू, आगे बहुत भयानक और गहरी खाईयां हैं " और फिर  लता जी द्वारा गाया ये बेहद खूबसूरत गीत शुरू होता है - ओ बसंती पवन पागल".......

ओ बसंती पवन पागल
ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती...

बनके पत्थर हम पड़े थे, सूनी सूनी राह में
जी उठे हम जब से तेरी, बांह आई बांह में
छीन के नैनों के काजल
ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती पवन पागल...

याद कर तूने कहा था, प्यार से संसार है
हम जो हारे दिल की बाजी, ये तेरी ही हार है
सुन ले क्या कहती है पायल
ना जा रे ना जा, रोको कोई
ओ बसंती पवन पागल...

यह भी अजब संयोग था कि इसी साल भारतीय सिनेमा के महान निदेशक  नितिन बोस ने भी डाकुओं के जीवन पर एक और फिल्म बनाई जिसका नाम था "गंगा जमुना"! दिलीप कुमार , वैजयंती माला और नासिर हुसैन के यादगार अभिनय , नौशाद के संगीत और शकील
बदायूं नी के गीतों से सजी इस फिल्म ने लोकप्रियता के मामले में जिस देश में गंगा बहती को काफी पीछे छोड़ दिया था । लेकिन जिस पावन उद्देश्य को लेकर राज कपूर जी ने "जिस देश में गंगा बहती है " का निर्माण किया उसने आगे चलकर  डाकू समस्या  से जूझ रहे देश को बहुत बड़ी निजात दिलाई । सौभाग्य से श्री जय प्रकाश नारायण जी के आव्हान पर सातवें दशक में जब चंबल घाटी के कुख्यात डाकुओं जैसे मोहर सिंह, मलखान सिंह आदि ने समर्पण किया तो में अपने पिता के साथ उस ऐतिहासिक मौके पर भी मौजूद था । इस अभियान को मूर्त रूप देने में भोपाल के सुप्रसिद्ध पत्रकार  श्री तरुण कुमार भादुड़ी ( जया भादुड़ी के पिता और मेरे परम मित्र एवम् मार्गदर्शक) के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता !

"जिस देश में गंगा बहती है " की कथा को यही विराम देते हुए अब अपने बचपन के दिनों में देखी गई एक और फिल्म के बारे में बताता हूं, जिसे मैं आज   सिनेमा के एक रसिक दर्शक के रूप में हिंदी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ 10 फिल्मों में शुमार करता हूं ।ये  थी " गीतकार शैलेन्द्र द्वारा निर्मित पहली और दुर्भाग्य से आखिरी फिल्म "तीसरी कसम " (1966) !

तीसरी कसम" को हिंदी सिनेमा की उन चुनिंदा फिल्मों में शुमार किया जाता है जिसमें हिंदी साहित्य की एक बेहद मार्मिक कृति के रेशे रेशे को बुना गया है। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी "मारे गए गुलफाम "  में लेशमात्र भी बदलाव किए बगैर उसकी छोटी छोटी बारीकियों का ध्यान रखा , फिल्म के निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने ! हालाँकि  बतौर निर्देशक उनकी ये पहली फिल्म थी ,  बाबजूद इसके उन्होंने अपनी गहरी छाप छोड़ी। उनके सामने राज कपूर और वहीदा रहमान जैसे नामी सितारे थे, जिनका पहले से ही अपना बड़ा स्टारडम था। लेकिन  उन्होंने  एक कुशल और गंभीर निर्देशक के रूप में राज कपूर को एक गाड़ीवान (हीरामन) और वहीदा रहमान को  एक नौटंकी बाई ( हीराबाई ) के किरदार पर उनके स्टारडम को कतई हावी नहीं होने दिया। फिर दोनों   मंझे हुए कलाकार थे , इन्होंने खुद अपनी प्रसिद्धि के शिखर से नीचे उतर कर अपनी अपनी भूमिकाओं को बड़ी शिद्दत से निभाया।

अभिनय की दृष्टि से देखे तो "जागते रहो" राज कपूर की सबसे यादगार फिल्म मानी जाती है। लेकिन मुझे जिस  शिद्दत से वो "तीसरी कसम" में मौजूद नज़र आते हैं  उतना "जागते रहो" में भी नहीं लगते । "तीसरी कसम" में राज कपूर जी कहीं  भी अभिनय करते  नहीं दिखते ।  वह जैसे हीरामन के किरदार में ही एकाकार हो गए । ठीक इसी तरह छींट की सस्ती साड़ी में लिपटी हीराबाई ने भी वहीदा रहमान की प्रसिद्धि को बहुत पीछे छोड़ दिया। कजरी नदी के किनारे उकडू बैठा ठेठ देहाती हीरामन , हीराबाई से पूछता है -- मन समझती हैं न आप ! तो हीराबाई  जुबान से नहीं आँखों से बोलती है।  दुनिया भर के शब्द ,  आँखों की उस भाषा को शब्द नहीं दे सकते।  तो ऐसी सूक्ष्मताओं से स्पंदित थी --"तीसरी कसम" !

इस फिल्म की अधिकांश  शूटिंग  सागर मध्य प्रदेश के पास  बीना रेलवे स्टेशन से कुछ दूरी पर स्थित खिमलसा गांव में हुई थी ।इसका इंतजाम प्रेम नाथ जी  के अनुरोध पर उनके  करीबी मित्र और सांसद विट्ठल भाई पटेल ने किया था जो खुद अच्छे गीतकार भी थे और बाद में बॉबी फिल्म के लिए गाने भी लिखे। कवि होने के नाते वो शैलेन्द्र जी को  भी जानते  थे । बीना रेलवे स्टेशन आज बहुत बड़े जंक्शन के रूप में तब्दील हो चुका है लेकिन उन दिनों ये एक छोटा सा रेलवे स्टेशन ही हुआ करता था। फिल्म में इसे दिखाया भी गया है और इसके बाहरी तरफ जहां तब  रिक्शे और तांगे खड़े होते थे वहीं तीसरी कसम फिल्म का एक अन्य गीत जिसे  मन्ना डे जी ने बड़ी खूबसूरती और मस्ती से गाया , वो  गीत था - " चलत मुसाफिर मोह लिया री पिंजड़े वाली मुनिया" जिसे गाड़ीवान "हीरामन"  की अविस्मरणीय भूमिका निभाने वाले राज कपूर जी और कृष्ण धवन ( जो आगे चलकर जानेमाने खलनायक भी बने) , विश्व मेहरा,  शिवजी भाई ,  आदि सहायक कलाकारों की मित्र मंडली के बीच फिल्माया गया। यहां उल्लेखनीय है कि यही इस फिल्म का एक और यादगार दृश्य भी फिल्माया था जो वहीदा रहमान और राजकपूर जी के मामा जी विश्व मेहरा ( जिन्होंने फिल्म में पलटदास ( पंडित जी ) की एक छोटी सी लेकिन यादगार भूमिका निभाई थी । गाड़ी में सोती हीराबाई ( वहीदा रहमान ) के खूबसूरत पैरों को देखकर सिया कुमारी की चरण वंदना का वह बेहद मनोरंजक  दृश्य भला किसे याद न होगा ।  यहाँ  उल्लेखनीय है कि विश्व मेहरा जी राजकपूर जी की शादी में रीवा में आये थे और उसके बाद वो राजकपूर के अनन्य सहयोगी के रूप में रहे ! आरके.फिल्म्स की पहली फिल्म आग से लेकर अंतिम फिल्म "आ अब लौट चले तक" वही सभी फिल्मों के प्रोडक्शन कंट्रोलर रहे ! आर के स्टूडियो की देखरेख भी उनके जिम्मे थी !  राजकपूर जी जहाँ भी जाते वो उनकी छाया की तरह साथ रहते ! अभिनय में  भी उनकी रूचि थी ! जिस देश में गंगा बहती है , अनाड़ी आदि  राजकपूर अभिनीत कई फिल्मों मे काम  किया ! हर्ष का विषय है कि आरके स्टूडियो  का यह महत्वपूर्ण स्तम्भ आज भी जीवित हैं ! 97 वर्षीय विश्व  मेहरा की सजगता से ही यह संभव हो सका कि कुछ महीने पहले ऐतिहासिक महत्त्व की आरके स्टूडियो में निर्मित  सभी फिल्मों के नेगेटिव नेशनल फिल्म आर्काइव्ज में सुरक्षित जमा करा दिए गए ! 

अब मैं ज़िक्र करता हूँ उस दौरान  तीसरी कसम फिल्म के उन दो दृश्यों की जिनकी शूटिंग मुझे देखने का अवसर मिला !

मुझे याद है 1964 का साल था वो मई जून की छुट्टियाँ थी  ! मैं तब  छतरपुर के एक सरकारी स्कूल में  पांचवीं कक्षा  का छात्र था और मेरी उम्र कोई 10  साल की थी मैं अपने सहपाठी गिरधारी और परिवार के कुछ सदस्यों के साथ खिमालसा गाँव पहुँच गए शूटिंग देखने ! तीन चार दिन खूब मौज की हम लोगों ने वहां , इस बात से बेखबर कि आगे चलकर मैं खुद इस फिल्म का एक नन्हा सा हिस्सा बन जाऊंगा और इस फिल्म के बारे में लिखूंगा भी !

  

रास्ते में एक पेड़ की छाया में हीरामन और हीराबाई  खाना कहते हैं और फिर यकायक हीराबाई तेजी से चल कर बैलगाड़ी में आगे  हीरामन की जगह बैठ जाती है, जहाँ से वो बैलों को हाकते हुए गाड़ी चलाता है।  हीरामन कहता है - अरे आप यहाँ कहाँ  बैठ रही हैं  ? हीराबाई मुस्कुराती हुई  कहती है , अब गाड़ी हम चलाएंगे ! हीरामन कहता है -  मज़ाक करने का बहुत आदत है आपको , चलिए उधर आगे खिसक के बैठिये और ये कहता हुआ अपनी जगह बैठ जाता है।  फिर हीराबाई  को जैसे समझाते हुए कहता है --ये  गाड़ी  चलाना औरतों का काम नहीं।  हीराबाई पलट कर सवाल करती है --फिर औरतों का क्या काम है ?  अब हीरामन बड़े सहज भाव से कहता है  ---अजी  औरतों का क्या काम , घर गृहस्थी संभालना , शादी करना , बहू बनना और क्या ! हीराबाई को जैसे आखिरी शब्द मन में  बिध जाता है और उसके  नारीत्व की उद्दाम लालसा को जैसे उसी की बेबसी भीतर से जिझोंड देती है ! उसके मुंह से या कह लो आत्मा से  सिर्फ एक शब्द निकलता है-" बहु" ! हीरामन को लगता है जैसे उसने जाने अनजाने में अपनी बात से दुःख पहुंचा दिया है और इसीलिए  विषयांतर की गरज़ से बात पलटते हुए कहता है --आप मंदिर जाने को कह रही थी न , मंदिर यहाँ से बस थोड़ी दूर  ही है।  हीराबाई कहती है - मंदिर ! मंदिर जाने से क्या होगा ? हीरामन कहता है -- भगवान जी से प्रार्थना करेंगे और मन की मुराद मांगेगे ! हीराबाई जैसे अपनेपन से उसके कांधे पर हाथ रख कर उत्सुकता से  पूछती है -- अच्छा तुम भी मांगोगे , बताओ क्या मांगोगे ? हीरामन थोड़ा लजाते हुए बड़े भोलेपन से बड़ा प्यारा जवाब देता है ---वो तो हम भगवान जी से ही मांगेगे ! 



  इस दृश्य के बाद  "तीसरी  कसम" फिल्म के जिस  गीत की शूटिंग मैंने देखी वो गीत था "लाली लाली डोलियां में लाली री दुल्हनियां" , जो गाड़ीवान  हीरामन (राज कपूर ) और  बैलगाड़ी में  लजाती शर्माती छींट की लाल साड़ी पहने बैठी हीराबाई ( वहीदा रहमान ) पर फिल्माया गया था । 

गाड़ी के पीछे भागते बच्चों में मैं और छतरपुर में पांचवीं कक्षा में मेरा सहपाठी गिरधारी भी था । मुझे  काले कोट, सफेद गमछे और धोती में दौड़ना था । ग्राम प्रधान के यहां मुझे तैयार हो कर आना था ,लेकिन धोती पहन पाता इस बीच गाड़ी भी आ गई और मैंने धोती की परवाह किए बगैर प्रधान के घर से नीचे उतरते हुए गाड़ी के पीछे से दौड़ते हुए आगे की पंक्ति में ताली बजाते हुए चलने लगा । सड़क से थोड़ा ऊंचाई पर बने ग्राम प्रधान के घर से निकलने का दृश्य भी कैमरे में कैद हो गया जिसे जस का तस रखा भी गया है इस गीत में ।इस तरह हिंदी सिनेमा की इस यादगार फिल्म का एक नन्हा सा ही सही , हिस्सा बनने का मुझे और मेरे दोस्त गिरधारी को  सौभाग्य मिला।   



  हमारी हिंदी फिल्मों में लोक तत्व का सर्वदा आभाव रहा है। इस फिल्म में अभावों की ज़िंदगी जीने वाले लोग भी सपनीले कहकहों और लोकगीतों के जरिये खुश रहने के लिए प्रयत्नशील दिखाई देते हैं।  फिल्म के आरंभिक भाग में "चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़े वाली मुनिया" गीत को पूरी मस्ती से  गाते हुए गाड़ीवान और हीरामन दर्शक के मन को आल्हादित करते लगते हैं।  इसी तरह टप्पर बैलगाड़ी में हीराबाई को जाते देखकर उनके पीछे उत्साह से दौड़ते और "लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनियां"  गाते बच्चों का हुजूम हीरामन को कल्पना की दुनिया में ले जाता है जैसे वाकई वह अपनी दुल्हन को विदा कराके अपने साथ ले जा रहा हो और उधर हीराबाई भी भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही एक ब्याही दुल्हन के संसार को जीती दिखाई देती है।

   आज इस शुभ स्थान पर अपनी बाल स्मृतियों से जुड़े फिल्म  "तीसरी कसम' के इस प्यारे गीत को इस शुभ स्थान पर शेयर कर रहा हूं,  जिसे लिखा था कविराज शैलेन्द्र जी ने , संगीतबद्ध किया था शंकर - जय किशन ने और गाया था कोकिल कंठनी आशा भोसले जी ने ----

लाली लाली डोलिया में
लाली रे दुलहनिया
पिया की पियारी भोली
भाली रे दुलहनिया

लाली लाली डोलिया में
लाली रे दुलहनिया
मीठे बैन तीखे नैनो
वाली रे दुलहनिया

लाली लाली डोलिया में
लाली रे दुलहनिया
पीया की पियारी भोली
भाली रे दुलहनिया

लौटेगी जो गोदी भर हमें ना भुलाना
लड्डू पेड़े लाना अपने हाथों से खिलाना
तेरी सब राते हो दिवाली रे दुलहनिया

लाली लाली डोलिया में
लाली रे दुलहनिया
पीया की पियारी भोली
भाली रे दुलहनिया

दूल्हे राजा रखना जतन से दुल्हन को
कभी न दुखाना तू गोरिया के मनन को
नाज़ुक है नाज़ो की है पाली री दुल्हनियां

लाली लाली डोलिया में
लाली रे दुलहनिया
पीया की पियारी भोली
भाली रे दुलहनिया

तीसरी कसम जब स्कूली दिनों में देखी  थी , तब फिल्म देखने की उतनी समझ नहीं थी फिर भी अन्य अच्छी  फिल्मों की तरह इस फिल्म के कुछ  दृश्य अपना रागात्मक असर तो छोड़कर जाते ही थे ! जब बड़े हुए और इस फिल्म को कुछ और बारीकी व गहनता से देखा तो न केवल हीरामन और हीराबाई के निभाए गए चरित्र की  कुछ बारीकियां समझ में आई  बल्कि ये भी समझ आया कि क्यों फणीश्वर अपनी इस मार्मिक कहानी का अंत बदलने के लिए तैयार नहीं हुए थे । लेख के अंत में मैं इन दोनों पक्षों की मैं यहां संक्षिप्त चर्चा करना चाहूंगा।

फिल्म में हीराबाई का चरित्र नौटंकी में काम करने वाली एक नाचने गाने वाली बाजारू औरत का है। लेकिन शैलेन्द्र जी ने कहीं भी इस चरित्र को व्यावसायिक आधार पर कुंठित नहीं होने दिया बल्कि एक नारी के  गरिमामयी और साहसी रूप को भी सामने आने  दिया।  एक नौटंकी बाई होते हुए भी हीराबाई के भीतर एक खूबसूरत आदर्श जिंदगी जीने की ललक पूरी ताकत से मौजूद है और  उसे एक दृश्य में  प्रकट भी किया गया । याद करिये वह सीन , जब जमींदार (इफ्तिखार) हीराबाई पर ताना कसता हुआ कहता है कि ---सती सावित्रियाँ बनाने से नहीं बना करती हैं हीराबाई। तो हीराबाई जैसे  भड़क उठती है और कहती है कि  ---जब आप जैसे लोग सती सावित्रियों को बाज़ारू औरत बना सकते हो तो कोई ऐसा क्यों नहीं हो सकता जो बाजारू औरत को सती सावित्री बना दे। हीराबाई के भीतर भी नारी सुलभ स्वाभिमान और एक लालसा मौजूद दिखाई देती है  कि चार आना फैक कर उसका  नाच देखने वाली इस दुनिया में कोई ऐसा हो जो उसे मन से चाहे , उसे "कुवांरी" समझे , उसे इस तरह अपनी टप्पर बैलगाड़ी में परदे में छिपा कर ले जाये कि कोई देख लेगा तो उसे नज़र लग जाएगी !

हीरामन और हीराबाई के बीच इस अनकहे प्यार से उपजी इस तड़प ने ही तीसरी कसम का अंत दहला देने वाला बना दिया था ! हीरामन जी- जान लड़ा कर स्टेशन जा पहुँचता है। हीराबाई को जिस रेलगाड़ी से जाना है वो प्लेटफार्म पर आ चुकी है। दलाल (सी एस  दुबे) को हड़बड़ी है कि कहीं ट्रैन न छूट जाये  वह हीरामन को बुरा भला भी कहता है  ! लेकिन आज  हीरा बाई को महुआ घटवारिन की कहानी ,"दुनियाँ  बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई  , कहे को दुनिया बनाई " और  " सजनवां बैरी हो गए हमार , चिठिया हो तो हर कोई बांचे , भाग न बांचे कोय"  जैसे मर्मान्तक गीत सुनाने वालेे , उससे बक- बक करने वाले  हीरामन की आवाज़ जैसे छिन सी गई है ! फिल्म के इस आखिरी दृश्य में बैचेनी, मिलन की छटपटाहट और जीवन में फिर कभी न मिल सकने की निष्ठुरता सब एक साथ मूर्तिमान हो उठते हैं ! ट्रैन में बैठने  से पहले हीराबाई अब अपनी स्मृतियों का दुशाला हीरामन के कन्धों पर डालते हुए बस इतना कहती है -- "महुआ को सौदागर ने खरीद लिया हीरामन ,,,," 

हीराबाई चली जाती है ! लेकिन अपने पीछे प्यार की वह भावना छोड़ जाती है जिसमे ज़िंदगी के तमाम तूल - अरज  और उसकी बेबसी कोई मायने नहीं रखते, कोई किसी से गिला शिकवा भी नहीं करता ,  कोई किसी से कुछ कहता - सुनता भी नहीं है , लेकिन जैसे सब कुछ कह दिया जाता है ! सब कुछ सुन लिया जाता है।

भावनाओं के ऐसे उत्ताप से सजी थी  "तीसरी कसम " ! और इसीलिए फिल्म कला के मर्मज्ञों ने उसे "सेल्युलाइड पर लिखी कविता" तक कहा ।

-------के. के. शर्मा  ------

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

"फ्लैशबैक" ......

"फ्लैशबैक"  
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फिल्मों में  कहानी कहने की एक तकनीक होती है -फ्लैशबैक ! यानि वर्तमान से भूतकाल में छलांग लगा देना ! इस विधा के माध्यम से दर्शकों को वर्तमान का थोड़ा - बहुत बोध कराके फिर उनकी अंगुली पकड़ कर  भूतकाल में कहीं भी घुमाया जा सकता है ! आज  से कोई 27 साल पहले यानि 1993 में पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में जब मुझे फिल्म कला का गहराई से अध्ययन करने का अवसर मिला तो मुझे फिल्म की कहानी बयान करने  की इस तकनीक के बारे में  मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल जी से काफी कुछ सीखने समझने का अवसर मिला ! कहानी कहने की यह विधा सच में मुझे बेहद आकर्षक लगी थी ! शायद उनके इस बीजारोपण का ही रागात्मक असर रहा होगा कि जब मैंने  अपने ब्लॉग का नाम तय करने के बारे में सोचा तो ज़हन में जो सबसे पहले नाम आया वह "फ्लैशबैक" ही था ! मैं गूगल वालों का शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने अपने ब्लॉग के लिए यह नाम रखने की स्वीकृति भी दे दी ! 
"फेसबुक" ,"व्हाट्सप्प"  और "लिंक्डइन"  पर तो  काफी अरसे से अपने कोई  चालीस हज़ार (40 000) मित्रों से नियमित रूप से जुड़ा हुआ हूँ , लेकिन सोशल मीडिया के इन लोकप्रिय  माध्यमों की भी अपनी सीमाएं हैं ! बड़े लेख पढ़ने की अभी इन माध्यमों में रूचि जाग्रत नहीं हुयी है ,ऐसा मेरा मानना है ! हाँ  "ब्लॉग" पर गंभीर , शोधपरक और बड़े लेख आजकल खूब पढ़े जा रहे हैं  ! कवितायेँ , शायरी और यहाँ तक कहानियों पर एकाग्र ब्लॉग भी खूब लोकप्रियता बटोर रहे हैं !  यही नहीं ब्लॉग के लेखों एवं काव्य रचनाओं को  पुस्तक के रूप में प्रकाशित होते हुए  भी देख रहा हूँ !  ब्लॉग्स  को लोकप्रिय बनाने में सबसे अहम् भूमिका "फेसबुक"  निभा रहा है ! फेसबुक के अपने कुछेक मित्रों से अनुप्राणित होकर  आगे  मैं भी अपने ब्लॉग- "फ्लैशबैक " के ज़रिये नियमित रूप से रोचक एवं शोधपरक लेख प्रस्तुत करने का  प्रयास करूँगा ! 
हिंदी सिनेमा और उसके गीत संगीत में मेरी बचपन से रूचि रही है ! मेरा बचपन रेडियो और ग्रामोफोन के लोकप्रिय युग से होकर गुज़रा तो ज़ाहिर है मेरे काफी लेख इन्हीं पर एकाग्र होंगे !
इनके अलावा मेरे जीवन में जिस शौक ने सबसे अधिक रागात्मक असर घोला वो  अपने छोटे से गृह नगर छतरपुर (मध्य प्रदेश ) में  गोवेर्धन टॉकीज में देखी  गयी अनगिनत फ़िल्में , जिनकी कुनमुनाती अनगिनत यादें पिछले 60 सालों से मेरे पीछे पड़ी हैं ! बाद में मुझे देश के सबसे प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों जैसे इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन , नई दिल्ली (1977 -78 ), भारतेन्दु नाट्य एकेडेमी लखनऊ , नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा नई दिल्ली (1989 -1990 ) , फिल्म एण्ड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया पुणे , नेशनल फिल्म आर्काइव्ज , पुणे (1993 ) में अनेक गुणी जनों से थिएटर और सिनेमा कला को गहराई से जानने समझने का मौका मिला ! देश के श्रेष्ठतम समाचार पत्र समूह टाइम्स ऑफ़ इंडिया के  दिल्ली और लखनऊ कार्यालयों में कोई 25 साल काम करने का मौका मिला ! अपने जीवन से इन तमाम ठिकानों से जुडी  अनेक खट्टी मिट्ठी यादों , अपने अनुभवों और अर्जित जानकारियों को आने वाले दिनों में "फ्लैशबैक' के जरिये आप सबसे साझा करूँगा ! 

सोमवार, 20 सितंबर 2010

नमन



आदरणीय शर्मा जी

मैं आपको अपना स्वयं का ब्लॉग शुरू करने पर हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। ईश्वर की असीम अनुकम्पा से आप हम सभी हिंदी प्रेमियों की भावनाओं को समूचे विश्व में प्रकाशित करते रहें।

भवदीय

अमित हंस

  जिस देश में गंगा बहती है " और  "तीसरी कसम"  से जुड़ी मेरी बाल स्मृतियां ------------------------------ --------------------...